“इस बार मैं जरूर वोट दूंगा और मेरा वोट कांग्रेस को जाएगा। अपने बच्चों का नाम एनआरसी में दर्ज कराने के लिए मैं दफ्तरों के चक्कर लगाते-लगाते थक चुका हूं। मेरा नाम है, मेरे मां-बाप का नाम है, मेरे बहन-भाइयों का नाम है, लेकिन मेरे बच्चों का नाम गायब है।” एक सरकारी विभाग में काम करने वाले रफीक उल इस्लाम की यह बात असम में लोकसभा चुनाव की तस्वीर सामने रखती है। रफीक वोट देने के लिए नगांव जाने वाले हैं, जो गुवाहाटी से कोई 4 घंटे की दूरी पर है। वहां से फिलहाल बीजेपी के राजन गोहाईं सांसद हैं।
रफीक एक असमिया मुसलमान हैं और उन्हें इस बार चुनावों को लेकर कोई कंफ्यूज़न नहीं है। असम के दूसरे हिस्सों से आए हुए उनके दोस्तों को भी कोई शको-शुबह नहीं है। रफीक बताते हैं, “गोहाईं ने आखिर क्या ही किया है? मैंने उन्हें नगांव में तो कभी देखा ही नहीं।“ रफीक सवाल पूछते हैं, “आखिर 2018 में असम आए बंगाली हिंदुओं को नागरिकता क्यों मिल रही है? मेरा परिवार तो यहां पीढ़ियों से रह रहा है। मेरे बाप-दादा का नाम तो 1951 वाले एनआरसी में था, फिर भी आज मुझे इन दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।”
दरअसल निचले और उत्तरी असम की पूरी बराक घाटी में मुस्लिम मतदाताओं और कुछ हद तक अनुसूचित जातियों और जनजातियों के साथ ही ओबीसी वोटरो में भी चुनाव को लेकर कोई असमंजस नहीं है। इन इलाकों में 18 अप्रैल और 23 अप्रैल को वोटिंग होनी है। मोटे तौर पर यहां कांग्रेस के पक्ष में एकजुटता नजर आ रही है।
हिलकांडी में चाय बागान समुदाय से आने वाले धूपी अनुसूचित जाति के बंधन रजत कहते हैं, “मोदी यहां 2014 और 2016 में आए थे, यहां बीजेपी की सरकार भी है। उन्होंने हमारी दिहाड़ी 145 रुपए दिन से बढ़ाकर 350 रुपए दिन करने का वादा किया था, लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हुआ। दूसरी तरफ कीमतें बढ़ती जा रही हैं, सब तरफ भ्रष्टाचार है, बेरोजगारी है। मैंने ग्रेजुएशन किया हुआ है, लेकिन मुझे नौकरी नहीं मिली।”
चाय बागान समुदाय से आने वाले ही अनिंदा गोवाला भी कहते हैं, “दो साल से सत्ता में रहने के बाद इस साल जाकर बीजेपी सरकार ने हमें 5000 रुपए दिए। इससे क्या होगा? इससे हम कर क्या सकते हैं? हमें तो एक अच्छी जिंदगी चाहिए, लेकिन बीजेपी इसमें हमारी मदद नहीं करने वाली है। और फिर हम कब तक हिंदू-मुस्लिम सुनते रहेंगे?”
असम के इन इलाकों में बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ की छवि भी कोई अच्छी नहीं है। गुवाहाटी से ट्रेन पकड़कर बोंगाईगांव जा रहे 50 साल के स्वरूप कहते हैं कि, “बारपेटा में आखिर एआईयूडीएफ एमपी सिराजुद्दीन अजमल ने क्या किया है? इस बार तो हम कांग्रेस को वोट देंगे। कांग्रेस के अब्दुल खलीक अच्छे उम्मीदवार हैं और उन्होंने शिक्षा का बजट बढ़ाने का वादा भी किया है। मेरी बेटी को इसकी जरूरत है। वह इस बार सेंट्रल यूनिवर्सिटीज़ में एडमिशन के लिए एप्लाई करने वाली है।” एआईयूडीएफ को स्वरूप बीजेपी की बी टीम मानते दिखे। उन्होंने कहा, “हमें लगता है कि एआईयूडीएफ और बीजेपी के बीच कोई खुफिया पैक्ट है। हमें ऐसे लोगों की सत्ता में जरूरत नहीं है।” स्वरूप ने अपना सरनेम तो नहीं बताया, लेकिन पूछने पर कहा कि वह उच्च जाति से आते हैं।
इसी तरह टैक्सी चलाने वाले अरिजुल का कहना है कि, “मैं मंगलदोई से आता हूं और इस बार कांग्रेस को वोट दूंगा। बीते सालों में मेरी आमदनी तो बढ़ी ही नहीं। तेल के दाम बढ़ गए हैं, खाना महंगा हो गया है और इसके अलावा मुझे हर बार खाना खाते हुए डर से इधर-उधर नहीं देखना। मैं बीजेपी के ध्रुवीकरण से तंग आ चुका हूं। नागरिकता बिल ही उन्हें ले डूबेगा। मैं अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बनकर नहीं रहना चाहता।” अरिजुल 28 साल के हैं और उनके इलाके में 18 अप्रैल को वोटिंग होनी है।
असल में इस बार असम में न तो कोई लहर है और न ही किसी खास किस्म का माहौल। असमियों को खतरा है कि वे अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बनकर न रह जाएं। एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स के स्टेट कोआर्डिनेटर बसीत चौधरी कहते हैं कि, “असमिया हिंदुओं में भी इस बार कांग्रेस को लेकर अच्छा मूड है। नागरिकता बिल से बीजेपी को कोई फायदा नही होने वाला।”
वैसे हाल के दिनों में कांग्रेस ने जितनी भी राजनीतिक रैलियां की हैं उनमें तकरीबन सभी समुदायों के लोगों ने बड़ी तादाद में हिस्सा लिया है। रोचक है कि दलित, एससी-एसटी और मुस्लिम मिलकर रैलियों में जा रहे हैं। जबकि 2014 के चुनाव में सारे समुदाय साफ बंटे हुए नजर आ रहे थे। वैसे असम में 34 फीसदी मुस्लिम आबादी है, 13 फीसदी आदिवासी हैं और करीब 7 फीसदी अनुसूचित जातियां हैं। और इन सबको एक ही चीज़ एक-दूसरे से जोड़ती है, और वह है केंद्र और राज्य की बीजेपी सरकार की नाकाम नीतियों और नफरत फैलाने की कोशिश से पैदा हुआ गुस्सा और नाराजगी।